हर रोज हम खुद से इक सवाल किया करते हैं, आखिर हम क्यों जिया करते हैं.... लेकिन हर बार ये सवाल मेरे ही अक्स से टकरा कर वापस चला आता हैं.... हर बार की तरह रोज़ ये सोचते हैं कि बस..... अब कुछ और नहीं पूछना इस ज़िन्दगी से.....लेकिन ये बेरहम ज़िन्दगी हमें हर दिन एक नए मोड़ पर ला खड़ा करती है....और फिर मै उसका दमन थाम पूछती हूँ बता क्यों नहीं रहम करती है तू मुझ पर .... क्या सारे इम्तेहान मेरे लिए ही संभाल कर रखे हैं.... इन सारे सवालों के साथ मैं एक बार फिर अकेली हो जाती हूँ.... और ज़िन्दगी फिर मुझे तन्हा कर कहीं दूर निकल जाती है.. किसी कोने में ताकि वो देख सके कि मै किस राह जा रही हूँ.... जिस से फिर वो दुबारा मुझे आसानी से ढूंड ले और अपने साथ बहा ले जाए.....
मेरी अगली कविता इस ज़िन्दगी के उपर लिखी है....
मुझको ऐ ज़िन्दगी हर वक़्त सताती क्यों है....
जुल्म तू अपने दामन के मुझपर ढाती क्यों है....
कभी मिला नहीं सुख चैन मुझको जिने का....
रो चुके हम इतना अब और रुलाती क्यों है....
क्यों रहम नहीं आता तुझको मेरे हालात पर....
सुला दे मुझे, दिन रात जगती क्यों है....
फ़ना हुए हैं जो तुझे प्यार करते हैं.....
मौत को आने दे....
तू उसे डरती क्यों है...
मुझे एक अच्छी कविता पढ़ने को मिली...मन की भावनाओं की...
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