जय हिन्द

Saturday, December 10, 2011

कांपती मेरी परछाई है...


आईने में आज खुद को देखा करते हैंतलाशते हैं वजूद अपनासोचते हैं कि चाहत आज कहां ले आई है...जहां दूर तक साथ बस तनहाई है...
नहीं पता था सपने रेत का कतरा हैंकभी भी किसी के हाथ नहीं आते...जो चल पड़ा है मेरे साथ वोअपना है या अंजान परछाई ...
खुशियां ही चाहती है जिंदगीपर करनी पड़ती है गम की बंदगीरौशनी की तलाश में निकली हूं जब कभी...क्यों मेरे साथ अंधेरों की राहजनी है...
आज कई पन्नों को पलटा मैंनेहर पन्ना एक नई कहानी बताता है..किस जगह पर आकर रूके हैं कदम मेरेजहां दूर तक बस मेरी ही रूसवाई है..
नहीं जानते थे कि दर्द फिर सहना होगाशर्तों के साथ हर मोड़ पर बढ़ना होगा...किश्तों में खत्म हो रही है ज़िंदगी किसी की...सिसकती है रूह और कांपती मेरी परछाई है...